मल्हार / प्रेमशंकर शुक्ल
सुनते हैं उमर पचास तक रीवा में रहे थे तुम
इस लम्बी अवधि में कितना गाया होगा तुमने तानसेन
और पूरा रेवांचल तुम्हारे राग-रागनियों की ख़ुशबू से
रहा होगा सराबोर और उस समय
कोई कलेजा काठ न हुआ होगा
जब तुम मल्हार गाते रहे होगे
विंध्य को बरबस भिगोते रहे होंगे मेघ
नाचते अघाते न होंगे मोर-मोरनी
और यह विंध्या-भूमि हरीतिमा, फूल-फल से
लदी रही होगी
जनश्रुति कि पाँच वर्ष की आयु में गूँगेपन के बाद
बारिश में ही खुला था तन्ना तुम्हारा कण्ठ
धन्य है गुनग्राही राजा रामचन्द्र जो तुम्हारे कण्ठ की मिठास से
निर्मल करता रहा अपना हृदय
और पूरे जनपद को कराता रहा ‘सुरराज' के कण्ठ का
मधु-रस-पान
अकबर के राज में तो तुम नवरत्नों में से थे एक
पर विंध्यभूमि में तो तुम ही थे सर्वोच्च रत्न
आज भी विंध्यप्रदेश की इन घाटियों-पहाडि़यों
की पगडण्डियों से गुजरते लगता है --
झरनों में बह रहा है तुम्हारे कण्ठ का संगीत
तुम्हारे ही राग से खिले हैं, ये फूल
नदियों में खिलखिला रहा है प्रसन्न-जल
और हवा में भी सुर-ताल का असर है
सुनते हैं तुम्हारे तान पर मुग्ध थे वत्सल-हृदय महाकवि सूरदास
वर्षा-मंगल निहारते खड़ा हूँ बारिश में सुनते हुए मियाँ की मल्हार
और मेरे अंतस् में भरता जा रहा है
पूरे वनप्रान्तर की हरियाली का छन्द
तन्ना ! तुम्हारे गहरे आलाप में तानी का विरह उठ रहा है
और मेघ करुणा बरस रहे हैं भीगेमन
आह ! बूँदों को भी संगीत का कितना रियाज़ है !