मवेशियों के त्योहार पर / कुमार कृष्ण
उस घाटी के पेड़ों में
ज़मीन की नहीं
डंगरों की गन्ध है
जिनकी पीठ के बाल फँसे हैं
दरख़्तों की खाल के साथ जगह-जगह
मरी-मरी धूप में
पूँछ उठा-उठाकर पीठ खुजलाना
मवेशियों की आदत बन चुकी है।
उस घाटी में जब होता है
मवेशियों का त्योहार
पूरे गाँव के बैल नहीं खोदते ज़मीन
वे आँख बन्द करके सुनते हैं
खुद के बिकने की दास्तां।
चरनदास गुजरता है जब
गुलाबसिंह की ज़मीन से
लगते हैं रँभाने
गिरवी रखे हुए बैल
गुलाबसिंह के आँगन में।
बखूबी जानते हैं वे
चरनदास की गन्ध
बचपन के सभी त्योहार मनाये हैं
चरनदास के साथ
चरनदास नहीं थपथपा सकता
बैल की पीठ
मवेशियों के त्योहार पर।
घाटी में उगे
घने जंगल से गुजरते हुए
दरख़्तों की खाल में फँसे
बालों में ढूँढ़ता है
बैलों की गन्ध और
लौट आता है अपने आँगन में
झड़े हुए बालों को पलोसकर।