भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महंगाई का पारा / मोहम्मद साजिद ख़ान
Kavita Kosh से
महंगाई की मार बड़ी है ।
पापाजी, कुछ करो हमारा ।।
जेब-खर्च तो और बढ़ाओ,
इतने में अब नहीं गुज़ारा ।।
हुई हमारी जेबें ख़ाली ।
गुल्लक पीट रहा है ताली ।।
बस, नोटों की बात कीजिए,
सिक्कों का अब नहीं सहारा ।।
चाट-पकौड़े मन ललचाएँ ।
चीज़ें सारी हमें चिढ़ाएँ ।।
कितना तो समझाया, पापा !
नहीं मानता मन बेचारा ।।
लगता है अब सारे सपने ।
होने नहीं एक भी अपने ।।
चढ़ता ही जा रहा रोज़ ही,
महंगाई का देखो पारा ।।