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महज़ एक आदमी हूं / एम० के० मधु

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मैं विद्वान नहीं
विद्वान बनने की साजिश भी नहीं
मैं तो महज़ एक आदमी हूं
बस सहज एक आदमी हूं
जिसके चेहरे पर
टंगी है तहरीर
थोड़ा है, थोड़ा और पाने की
और जिसके कंधे से लटकी है
बहुजन हिताय की तस्वीर
जो करता है अलग
बिल्कुल अलग
मेरे अहम को
उस अहम से
जो बांटता है
किताब एवं किताबत का आदमी
और जिससे हटकर
परिभाषित होता है
आदमीयत का आदमी।