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महज़ संयोग / सैयद शहरोज़ क़मर
Kavita Kosh से
यह एक महज़ संयोग था
कि उस वक़्त तुम और तुम्हारे चिलचिलाते
बदन को देखा
लहलहाती दुपहरी में
चुक्कू-मुक्कू तुम्हारा बच्चों के संग
बाटी खेलना और खेलते रहना
मेरी अनदेखी
तुम्हारी मुस्कान ने भंग की नीरवता
अब मैं भीतर-भीतर प्रेम के दावानल में
झुलसता महसूस कर रहा हूँ
तुम्हारे प्रति ये मेरा
अनुराग या आग्रह
बेहतर होता कि काश
मैं किसी चट्टान या दरख़्त में हो जाता
तब्दील तो यह प्यार की टीस
महसूस तो न होती