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महफ़िल रही तमाम बड़े तामझाम की / पुरुषोत्तम प्रतीक
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महफ़िल रही तमाम बड़े तामझाम की
मैं भी गया ज़रूर मगर राम-राम की
दिल पर रखा पहाड़ उतारें भला कहाँ
कोई अभी उमीद नहीं है मुक़ाम की
पहले बुझे चिराग़ सभी एक-एक कर
फिर आग फैल-फैल गई इन्तक़ाम की
सुनकर तमाम लोग बहुत तिलमिला गए
क़ीमत लगी अजीब हमारे सलाम की
दो वक़्त का जुगाड़ बने दोस्तो कहाँ
ख़ुद बन गया ख़ुराक इसी इन्तज़ाम की