भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महसूस हो रही थी शर्मिंदगी मुझे / जगदीश तपिश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महसूस हो रही थी शर्मिंदगी मुझे
रोते हुए मिली थी मेरी ज़िन्दगी मुझे

तौबा तो कर चुके थे छुएंगे न जाम को
फिर मैकदे में लाई तेरी दोस्ती मुझे

कितने फरेब हँस के उजालों ने दिए हैं
रो-रो के कह रही थी मेरी तीरगी मुझे

दामन न छुट जाए मेरे सब्र का कहीं
ले चल तू दरे यार पे आवारगी मुझे

हमज़ाद तो में ख़ुद ही था अपने वज़ूद का
मुझसे मिला सकी न मेरी बेबसी मुझे

कितना सुकून है तपिश गम की पनाह में
मरने भी नहीं देती तेरी बेरुख़ी मुझे