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महानगर के सावन की एक शाम / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
बाहर सावन था
भीतर हलचल--
एक लहर तुम से
हो कर/मुझ तक आयी थी
और एक लहर ने
तुम्हें छू लिया था...
मन धानी दुपट्टे-सा लहराता/बार-बार
तुम्हें छूने को मचल उठता था--पर
आस-पास के वातावरण में
उग आयी थीं, जैसे
अनगिनत आँखें--
जिनके बीच
तुम्हारी आँखों की प्यास
और/कुछ और
गहराती जा रही थी--
सावन की रिमझिम
और तुम्हारा साथ--
शायद, इतना ही बहुत है...!
साथ भीगना ही है, तो
सपने किसलिए हैं-?
यथार्थ में किसी
सोये भाव को
स्पर्श से सहला न देना
मेरे दोस्त--
यह महानगर है, और तुम
जी रहो हो,
महानगर के
सावन की एक शाम--!