भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महाप्राण / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
महाप्राण था
जीवन का महागान गाता था
अंतस विस्तृत पहाड़ था :
आकाश छुआ
नदी फूटती थी जिससे
कविता की
मरकर हज़ार मरण
साध लिया था जीवन-राग
जाग-जाग कहता था--
फिर एक बार
तना हुआ सीना
गरिमा से गहरी आँखें
सूत्र सुझाती थीं-
दृढ़ आराधन से दो उत्तर
विकट प्रश्न हैं कहाँ अमर
कद-काठी का ऊँचा था
बड़े-बड़े छंदों को
अनुशासित करता था
कुपथ छेंकता
पथ पर वह आता था
गाता था- लिखता था
मुस्काता था : बड़ी-बड़ी सत्ता पर
दुर्धर्ष रहा वह इतना
कि तुलना हो जल से
सहज-सरल भी इतना
कि उपमा हो
जल से ही।