महामना मालवीय जी के प्रति / लाखन सिंह भदौरिया
ओ मालव प्रदेश के वासी, काशी के विद्वान।
गिरा तुम्हारी मुखरित थे, कालिदास के गान।
और गिरा से कहीं अधिक था सरस तुम्हारा जीवन,
रस-प्लावित कर गये, सुधा से तुम सिकता का कन कन,
भारतीय संस्कृति ने जैसे हो तुम में साकार,
पराधीनता के पाशों में, की हो करुण पुकार,
मिला उदार हृदय तुम को था, और हृदय को लोचन,
पड़ा तुम्हारे ही कानों में सुर संस्कृति का क्रन्दन,
देखा गया न तुम से पीड़ित दुखी देश का क्रन्दन।
कूद पड़े दहकती आग में, सुन जाग्रति आह्वान।
वह विद्या की केन्द्र कि जब काशी तमग्रस्त बनी थी,
चारों ओर, राष्ट्र-प्राणों पर घिरी बनी रजनी थी,
बौनी बाहों का प्रयास तब ही नभ को छू आया,
हिन्दू विद्यापीठ ज्ञान का दीपक नया जलाया,
भव-मंगल के लिये, याचना को तुमने अपनाया,
दानी की गौरव गरिमा को, याचकता ने पाया,
दानवीर कहलाने का अभिमान न तुममें जागा,
तुम ऐसे भिक्षुक बन बैठे मिला तुम्हें मुँह माँगा,
अमर रहेगा, जब तक भू पर ‘शिव’ दधीचि का दान।
घट न सकेगा तब तक तेरी याचकता का मान।
कौन बना हे सरलमना! तुम सा निर्धन सम्राट,
महामना, ‘वामन’ काया में, तुम बन गये विराट,
भारतीय संस्कृति के तुमने पोंछे गीले लोचन,
तुम अर्पित हो गये, देशहित बनकर चिर आश्वासन,
माँ का हृदय बेधने वाला, तीर बन गया काल,
नोआखाली की नृशंसता का भीषण भूचाल,
तुम ढहकर रह गये, विटप से, भारत के सेनानी,
मर्माहित माँ की आँखों का देखा गया न पानी,
है विश्वास कि तुम माता का दुख न भुला पाओगे।
तुम अखण्ड भारत का झंडा फहराने आओगे।