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माँ-1 / अखिलेश श्रीवास्तव

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जब हम बच्चें थे
तो फूल मान लिये गये थे
रोज सबेरे क्याँरी सींची जाती थी

अरगनी पर चादर तान
दों टूक जवाब दे दिया जाता था सूरज को
बचा लियें जाते थे हर ताप से
पौधों के नींचे रख दिये जाते थे
दों धारीदार पत्थर
हमारे बहाने ही
पूजें जाते थे शिव
 
दुपहरियाँ में निराई गुड़ाई
करते पिता खुरपी जैसे कठोर हो जाते
और सांझ होते-होते
इतने नर्म जैसे कपास के फोहे हो
खूब सुख भरा था
फूल के हर पंखुड़ी में
जब भी माँ का ख्याल आया
एक मिठास तैर जाती मन में
कभी मनाती कभी पोहलाती माँ
एक मिठाई जैसी है

बहुत दिन बाद
जब फूल से फल बने
और फल से बीज़
तब तलाशनी शुरू की वह जमीन
जहाँ मुझे उगना था
देनी थी छाया।
क्याँरी में उगना
और किसी अनजान जमीन पर
अपनी जड़े जमा लेने का अंतर
या तो अमलतास की बेंलो को पता है
या मुझे।
 
पिता के अलावा
दुनिया के सारे रिश्ते
चीड़ के जंगलों जैसे हैं
और फैले हैं दूर-दूर तक
जीवन का सारा जल
खींच लिया हैं आस पास से
 
कई योजन तक
पठार ही पठार हैं
उनकी पत्तियाँ नुकीली और शंकुल हैं
बगल से गुज़र जाऊँ तो
पूरे शरीर पर खरोंच के निशान दिखते हैं
जैसे कई बाघो ने
एक साथ मारा हो पंजा

माँ उस जंगल
में कनेर जैसी है
जब भी कोई फांस लगी पांव में
उस पठार भरे चीड़ के जंगल से
गुजरते हुये
उसने अपनी पूरी शक्ति
जड़ो से खींचकर
फुनगिंयो तक पहुंचाई
अपने को कूटा, मसला
और ज़ख्मो पर छाप दिया
माँ मुरझा गई
एक दिन अपनी ही फुनगिंया तोड़ते-तोड़ते
मैं आज भी
चीड़ के जंगलो में कनेर ढूंढता हूँ।