माँ-बेटियाँ और पिता / रूपम मिश्र
दिया-बाती की तरह माँ के साथ जल भी न पाईं वो बेटियाँ
जहाँ माँ आजीवन पिता की परिचारिका बनकर रह गई !
ये पिता किसी एक रूप में नहीं थे,
जिसमें जितना पौरुष वो उतना बड़ा तानाशाह
ये हल चलाने वाले, कचहरी जाने वाले, प्राइमरी में पढ़ाने वाले,
संस्कृत महाविद्यालय में कठोपनिषद पढने वाले, थाने में दलाली करने वाले,
गाँव की प्रधानी करने वाले, गुस्से से बोलने वाले,
औरतों से कम बात करने वाले, परम्परा की दुहाई देने वाले
बेटियाँ जब एकाध भीगे सावन में लौटीं तो दुपहिया-तिजहरिया आँखें भी भीगती रहीं
बेटियों ने जब कहा कि नहीं उठा जाता इतना मुँहअन्धेरे,
नहीं भूखा रहा जाता सबके खाने तक, पीरियड आने पर नहीं होता इतना काम
तब ये माएँ कहतीं — बिटिया ! वो नइहर थोड़ी है, इतना तो सहना ही पड़ता है,
और तुम न ये किताब -कॉपी छोड़ो
गुन-सुभाऊ होना चाहिए
हर जगह जांगर ( परिश्रम) की ही पूजा होती है
माँ की मुँहदूबरई में ढली ये बेटियाँ सहज ही चुप हो जातीं
लेकिन जानती थीं कि अगर जांगर की ही पूजा होती
तो हाक़िम को गद्दी से खींचकर मज़दूर-किसान बिठा दिए जाते
इन बेटियों को याद रहा छुटपन का वो मड़ियाँन-सा सावन
जहाँ चौरा माई के थान पर बुआ कजरी ढूँढ़ कर गा रही हैं —
(दिन भरी रहे, बेटी, तोहरे बाबा की टहलिया में ना
नियायीं रतिया में बेटी आवइ तोर खियालिया, नियायीं रतिया ना)
जिसमें बेटी माँ से पूछती है — माँ, तुम्हें मेरी याद कब आती है
माँ ने करुण-गर्व से कहा — जब आधी रात को तुम्हारे पिता की टहल से निवृत होती हूँ,
तब तुम्हारी याद आती है बेटी !
जबाब में दीनता की इतनी तहें थीं कि प्रश्न ही क्रूर लगते ।