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माँ / उत्तिमा केशरी
Kavita Kosh से
माँ आसनी पर बैठकर जब
एकाकी होकर
बाँचती है रामायण
तब उनके स्निग्ध
ज्योतिर्मय नयन
भीग उठते हैं बार-बार ।
माँ जब ज्योत्सना भरी रात्रि में
सुनाती है अपने पुरखों के बारे में
तो उनकी विकंपित दृष्टि
ठहर जाती है कुछ पल के लिए
मानो सुनाई पड़ रही हो
एक आर्तनाद !
माँ जब सोती है धरती पर
सुजनी बिछाकर तब
वह ढूँढ़ रही होती है
अपनी ही परछाई
जिसे उसने छुपाकर
रखा है वर्षों से ।