माँ / नरेन्द्र मोहन
एक मायावी तंत्र में जकड़ा
कातर चुप्पी में गुम
भभक उठता हूँ कभी-कभी
तो याद आती है माँ!
सारे तारों को बराबर संतुलन में
खींचे रखते हुए भी अपनी भभक में
माँ की-सी भभक का आभास क्यों होता है
क्यों एक क्रुद्ध आकृति मेरे स्नायु-तंत्र को
खींचती और तोड़ती-सी लगती है
सोचता हूँ
परिस्थिति और संस्कार को
नागफाँस में
यों ही नहीं भभक उठती होगी माँ
हताश मासूम आँखों में करुणा लिए
भयाक्रांत
जैसे कोई शरणार्थी
कटे हुए ख़ूनी दृश्यों को लांघता, बचता, घिसटता
माँ! पालती, दुलारती, उसारती घर
एक-एक कण को बटोरती-सहेजती
आत्म-सम्मान के ढुह पर ठहरी-ठहरी
कैसे बेघर हो खड़ी है सामने
बदहवासी में काँपती देखती है मुझे
आग्नेय नेत्रों से
टूटी अंगुली के दर्द से कराहती निरीह
ताकती है मुझे नवजात शिशु के उमड़ते भाव से
जबकि मैं जवान
उसकी आस्था से बना पुख़्ता और बलवान
मेरा जिस्म पत्थर-सा पड़ा
क्यों नहीं उठा पाता उसे रोक पाता
उस तट पर जाने से
जहाँ डूबने से बच नहीं पाया कोई
'कम्बल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था' केश कम्बली
कला साधना में
लय की चरमता में लीन
और एक अकेलेपन में डूब गई माँ
छुटी-कटी लय
खंडित हिस्सों में बिखरी, लुटी, असहाय
एक मायावी तंत्र में जकड़ा
कतर चुप्पी में गुम
भभक उठता हूँ कभी-कभी
तो याद आती है माँ!