भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ के लिए / अनुपम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब कभी
माँओं के प्यार-दुलार की बात चलती है
थोड़े से बच्चे चहकते हैं
बाक़ी सब उदास हो जाते हैं।
उन उदास बच्चों के साथ खड़ी मैं
याद करना चाहती हूँ अपनी माँ का स्पर्श।

मुझे याद आती हैं उसकी गुट्ठल खुरदुरी हथेलियाँ
नाखूनों के बगल निकले काँटों-से सूतरे
जो कई बार काजल लगाते समय
आँख में गड़ जाते थे।
सिंगार-पटार के बाद माथे पर बड़ी तेज़ी से
टीक देती थी एक काला टीका
जिसे न जाने प्यार से लगाती थी या गुस्से से।

सोचती हूँ याद करूँ
वो थपकियाँ जो माँएँ बच्चों को देकर सुलाती हैं,
देखती हूँ, वह चरखे के सामने बैठी
एक हाथ में रूई की पूनी पकड़े
दूसरे को
चरखे की घुण्डी पर टिकाए
उझक उझक कर सो रही है।

अब भी मेरे घर में मेहमानों के लिए जो सबसे सुन्दर
चादर और दरियाँ हैं, उसके रेशे-रेशे में
माँ झपकियाँ ले रही है
देर रात तक चरखा चलाती, ऊँघती माँ
दिन में भी तकली की तरह घूमती रहती
पाँवों में ढेरों गुरखुल छुपाए
कँकड़ पर पाँव पड़ते ही वह चीख़ती और ठण्डी पड़ जाती।

माँ नहीं याद आती कभी माँ के रूप में
याद आती है चूल्हे की धुधुआती लकड़ियाँ
जिसे वह अपनी फूँक से अनवरत
सुलगा रही है।

देख रही हूँ, माँ अपनी छोटी-सी गुमटी में बैठी
फरिश्तानुमा बच्चों का इन्तिज़ार कर रही है
जहाँ दिन में एक दो बच्चे अपने घरों से
एकाध सेर गेहूँ चुरा लाते हैं
वह उन्हें हड़बड़ी में कुछ चूस नल्लियाँ पकड़ा देती है
इस समय सबसे ज़्यादा भयभीत दिखती है
वह उकड़ूँ बैठी माँ।

माँ नहीं है माँ
वह चरखा तकली अटेरन है
भोर का सुकवा तारा है वह
जिससे
नई दुलहने अपने उठने का समय तय करती हैं।

माँ चक्की से झरने वाला पिसान है जिससे
घर ने मनपसंद पूरियाँ बनाईं।
अब वह एक उदास खड़ी धनकुट्टी है जिसके
भीतर की आवाज़ कहीं नहीं पहुँचती
अपने ही जंगलों में गूँज कर बिला जाती है।

यह कई बेटियों बेटों और पोतों वाली
हमारी पैसठ साला माँ के लिए
मर्सिया पढ़ने का समय है!