भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माँ को जाना है / रमेश पाण्डेय
Kavita Kosh से
माँ को जाना है बेटे के पास
माँ ख़ुश है
ताने-बाने पर चढ़ी हैं नीली सफ़ेद यादें
बुने जा रहे हैं आसमानी सपनों के थान
दिख रहे हैं
उजले-उजले दिन
नरम-नरम रातें
सुनाई दे रही है विस्मित हँसी
अभी मकई के दाने निकालने हैं
अचार को धूप दिखानी है
कपड़े तह करने हैं
तलनी है मीठी पूरी
खदेरन को खेत सहेजना है
बड़कू को घर-दुआर
काम ही काम फैल गया है आज