भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माँ वसुंधरा / सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त'
Kavita Kosh से
रात का घूँघट ओढ़े
निशब्द ठहरी वसुंधरा।
चिर प्रतिक्षण गगन की ओर
देख रही है वसुंधरा॥
स्मृतियों के पिटारों से
अपने प्रतिबिंब को दिया सहारा।
धीरे वही करती है,
उसकी इच्छाओं को पूरा॥
न जाने क्यों फिर उसके
नयनों में है किसी की प्रतीक्षा
सर्वस्व अपना खोने के लिए।
तैयार है उस पल भर के लिए॥
जानते हो इतनी सारी,
वेदना है किसके लिए।
उस रवि की आभा के लिए
जिसके लिए चिर प्रतिक्षण जिए॥
रवि की आभा पड़ने पर,
घूँघट उठाये खड़ी होगी।
मीठी मुस्कान अधरों पर लिए
मेरी माँ वसुंधरा॥