माँ है नदी / असंगघोष
सदियों से
यहाँ पड़ी इस नदी को
इस तरह समेटो मत
पड़ी रहने दो यूँ ही
जैसे पड़ी है यह
तुम्हारे पुरखों के जमाने से
जिनका नाम भी
तुम्हें नहीं मालूम,
अब कोई
जागा भी नहीं आता
सिर पर ढोते हुए
तुम्हारे पुरखों का हिसाब
फिर तुम क्यों उठा रहे हो
इस नदी को
अपने सिर
तुम जागा तो नहीं हो
यहीं पड़ी रहने दो मूर्ख
इसकी रेत में समाए हैं
तुम्हारे पुरखों की हड्डियाँ-राखड़ के कण
और जो चमक देख रहे हो किनारे पर
वह उनकी आँखों की महीन किरचें हैं
जो बिखर कर फैल गई हैं,
समेट सको तो
समेटो अपनी पोथी-पुराण
रफा-दफा हो जाओ यहाँ से
यह नदी मेरी है,
इसकी रेत मेरी है,
इसका पानी मेरा है,
इसका किनारा मेरा है,
इसका उफान मेरा है,
इसका विस्तार मेरा है,
इसका जीवन मेरा है,
यह मेरी जीवन रेखा है,
मेरी माँ है नदी।