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माँग लूँगा / सुधीर सक्सेना
Kavita Kosh से
उड़ा चला जा रहा हूँ
वेगवती हवाएँ
उड़ाए लिए जा रही हैं मुझे
महाद्वीपों के आर-पार
न जाने कहाँ गिरूँगा मैं,
न जाने कहाँ ?
जहाँ भी गिरूँ मैं
दे देना मुझे थोड़ी-सी मिट्टी,
थोड़ा-सा पानी
वहीं सूरज से माँग लूँगा मैं
अपने हिस्से की मुट्ठी भर धूप