भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मां / प्रदीप कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ
कहाँ थकती है
जबकि थक जाते हैं उसके पैर
जोड़ों व घुटनों के असहनीय दर्द से।

मां नहीं थकती
जबकि साफ दिख जाती हैं
चेहरें पर बुढ़ापे की थकान
और बेहिसाब सिलवटें

निपटा चुकी है वो
अपने सारे आधे अधूरे काम
बेटे।बेटियों के ब्याह के
और पोते।पोतियों की बचपन की सारी ख्वाहिशें
पर माँ नहीं थकती अब भी
नए सपनों के लिए।

मां तो माँ है
जो कभी नहीं थकती॥