भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मां /मीठेश निर्मोही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्हनै बुलाय
सूंपणी चावती ही
थूं।

थनै अर
थारी
कूंख नै

जतळायां
कै
फगत
कस्टीज्यां ई
हरी नीं व्हे जावै
मां री
कूंख।
दागल ई व्हे जावै
जद
जाया बिसरावै
पूत जिणियां ई
निपूती बाजै ।
पण औ कांई
म्हनै सांम्ही देख
ऊंडै हेज
थूं आपरौ आपौ
पांतरगी
मां!

तद इज तौ म्हैं
किणी मरसिया रै बणण सूं पैली
थनै रच लेवणी चावूं
मां कै
कदैई
औरूं नीं दागीजै
कोई
कूंख।