माघ का जल / दिनेश कुमार शुक्ल
पृथ्वी के गर्भ में था सूर्योदय
भाप उठ रही थी
गंगा के पानी से
माघ-पूर्णिमा का चन्द्र
लहरों पर टूट-टूट जाता था
टूट-टूट जाता था राग
पानी की नोकीली मिज़राब
छूती सितारों के तार
सिहर-सिहर उठते थे
प्रौढ़-अप्रौढ़ सब अंगराग
पानी में झाग आग पानी में
दीपशिखाएँ कम्पित
गंगा में कदली वन
कदली वन में गंगा
कर्पूरी-हैम-ताम्र-लौह घट-कुम्भ पीन
रजत-मीन
देह-द्रव ओतप्रोत
गंगा में द्रवित-प्लवित अष्टधातु
लहरें भुजंगिनी उठातीं गिरातीं फन
गंगा में कदली-वन
माघ का चन्द्रजल
खिले कितने कमल
शीत के शतदल कितने
गत-दल शतदल कितने
चिता और चूल्हे की लपटों में तपे हुए
कितने मन, मनसिज कितने-कितने !
जितने मन
उनसे भी चौगुने चन्द्रमा
माघ की गंगा में सद्योजात
नहा रहा था अनंग
अंग-अंग पानी में जलता था
सहसा ही निर्मल हो उठा पुनः एक बार
युगों से प्रदूषित विषाक्त जल गंगा का,
दुःख दयनीयता से शिथिल गात हुए अमर, कायाकल्प
जल और जीवन के मिलन का अपूर्व क्षण
गंगा ने देह को
देह ने गंगा को
नवजीवन दिया दान
अमृत स्नान पान
उधर दूऽऽर...
वेत्रवती—कालीसिन्धु—चर्मणावती पीकर
लेकर नीलाभा विन्ध्याचल की
कनखियों देखती लजाती मुस्काती-सी
कन्या कालिन्दी चली जाती थी सनासन्
संगम का होना निकट ही जान
सूर्य अभी ठहरा था माता के गर्भ में...