मानव-मन / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
चंचल लहरी, चंचल बिजुरी ताहूसँ चंचल मानव-मन
प्यासल मरु-सिकता कण अनन्त ताहूसँ तबधल तृषित नयन
विस्तृत बारिधिकेँ भरथु-पुरथु सरिता शत शत कलकल बहइत
भरि सकत अरे! के रिक्त मानवक उर-परिखा लघुतमहु अमित
अम्बरक तिमिरकेँ हर’क हेतु रवि, शशि, अनन्त नक्षत्र व्यस्त
अन्तरक तामसी घनीभूत जे हरत ज्योति से अति दुरस्त
कय लेल आचमन सागरसँ नहि हमर अगस्त्यक तृषा दूर
वलि छलि धापेँ नापल जगती ने भेल बामनी भीख पूर
पसरल दावानल पीबि ब्रजक विहरथु गुंजामाली किशोर
उर दाही गरल घोंट पचबथि से कतहु मदन-मर्दन अथीर
अधरक वसन्त, लोचनक शरद, श्रुति धन-धुनिएँ ऋतु-ऋतु रजित
अछिहे, परन्तु अन्तरक भूमि ग्रीष्मक ज्वालेँ जरि-जरि वंचित।।
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गलइछ नित हिम बिन्दु-बिन्दु, घन परिणत होइछ सतत सिन्धु
पूर्णिमा अमा-गत क्षीण इन्दु, संघर्ष अन्तरक की निरबधि?
वहिरंग भ्रमित की कण रोधित, उद्धत गति अन्तरिक्ष रोधित
विज्ञानक महाशक्ति बोधित, की करत न अन्त शान्ति घोषित?
झंझा वेगी वेगी निर्झर ताहूसँ वेगी मानव मन
चंचल लहरी, चंचल बिजुरी, ताहूसँ चंचल मानव मन