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माना-ए-दश्त नावर्दी कोई तदबीर नहीं / ग़ालिब

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माना-ए-दश्त नावर्दी कोई तदबीर नहीं
एक चककर है मिरे पांव में ज़नजीर नहीं

शौक़ उस दशत में दौड़ाए है मुझ को कि जहां
जादह ग़ैर अज़ निगह-ए दीदह-ए तसवीर नहीं

हसरत-ए-लज़ज़त-ए आज़ार रही जाती है
जादह-ए राह-ए वफ़ा जुज़ दम-ए शमशीर नहीं

रनज-ए नौमीदी-ए जावेद गवारा रहयो
ख़वुश हूं गर नालह ज़बूनी-कश-ए तासीर नहीं

सर खुजाता है जहां ज़ख़म-ए सर अचछा हो जाए
लज़ज़त-ए सनग ब अनदाज़ह-ए तक़रीर नहीं

जब करम रुख़सत-ए बेबाकी-ओ-गुसताख़ी दे
कोई तक़सीर ब जुज़ ख़जलत-ए तक़सीर नहीं

ग़ालिब अपना यह अक़ीदह है ब क़ौल-ए नासिख़
आप बे-बहरह है जो मु'तक़िद-ए मीर नहीं