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माया मन क्यों भरमाती / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
माना हमने नश्वर जीवन, माया मन क्यों भरमाती।
वशीभूत यह हमको करती, छूट नहीं तृष्णा पाती।
सुबह सलोनी रात सुहानी, यह आनी जानी छाया,
कर्म हमारे हाथों में सब, यही सुबह हर समझाती।
लेकर क्या हम आये थे फिर, साथ हमें ले जाना क्या,
छोड़ यहीं जाना है जिसको, कहते हम अपनी थाती।
करुणा दीप जलाकर देखें, हरपल अरुणोदय होगा,
स्नेह भरा दीवट अपना, बुझे नहीं इसकी बाती।
जीवन यों ही चलता जाये, तप कर हो जायें कंुदन,
बहती धारा क्यों; बह जाना, लौट कहाँ धारा आती।
मिलजुल कर जो सपने देखें, विश्वास कहीं जो टूटे,
बढ़ती अपनी अभिलाषा ही, दूरी अपनों में लाती।