भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मार गई मुझे तेरी जुदाई / आनंद बख़्शी
Kavita Kosh से
किशोर:
मार गई मुझे तेरी जुदाई डस गई ये तन्हाई
तेरी याद आई फिर आँखों में नींद नहीं आई
आशा:
मार गई मुझे ...
लाज का घूँघट चुप के ताले
मैने आख़िर तोड़ ही डाले
होती है तो हो ही जाए अब दुनिया में रुसवाई
किशोर:
मार गई मुझे ...
फिर न कहीं ये ग़म मिल जाएँ
आज ही क्यों ना हम मिल जाएँ
क्या साथी क्या बाराती क्या डोली क्या शहनाई
आशा:
मार गई मुझे ...
हर मुश्क़िल आसाँ हो जाती
पहले गर ये हाँ हो जाती
दोनों:
हमने हाँ करने में तौबा कितनी देर लगाई
मार गई मुझे ...