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मालूम नहीं / प्रताप सहगल
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					कहा तो था तुमने
ख़त लिखने को
और मैंने
सिर्फ़ शिकायतें दर्ज कीं
कहा तो था तुमने 
मिलने को भी कभी 
और मैं 
रास्तों को 
नक्शों में तब्दील करता रहा
कहा तो था तुमने शायद 
फोन करना 
थोडी शाम ढलने के बाद 
और मैं गुमसुम
हवाओं के पर काटता रहा 
मालूम नहीं 
हर बार 
कुछ होना 
कुछ और क्यों होता रहा !
	
	