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मास्क वाले चेहरे / अखिलेश्वर पांडेय
Kavita Kosh से
मैं अक्सर निकल जाता हूँ भीड़भाड़ गलियों से
रोशनी से जगमग दुकाने मुझे परेशान करती हैं
मुङो परेशान करती है उन लोगों की बकबक
जो बोलना नहीं जानते
मै भीड़ नहीं बनना चाहता बाज़ार का
मैं ग्लैमर का चापलूस भी नहीं बनना चाहता
मुझे पसंद नहीं विस्फोटक ठहाके
मै दूर रहता हूँ पहले से तय फैसलों से
क्योंकि एकदिन गुजरा था मै भी लोगों के चहेते रास्ते से
और यह देखकर ठगा रह गया कि
मेरा पसंदीदा व्यक्ति बदल चूका था
बदल चुकी थी उसकी प्राथमिकताएं
उसका नजरिया, उसके शब्द
उसका लिबास भी
लौट आया मैं चुपचाप
भरे मन से निराश होकर
तभी से अकेला ही अच्छा लगता है
अच्छा लगता है दूर रहना ऐसे लोगों से
जिन्होंने अपना बदनुमा चेहरा छिपाने को
लगा रखा है सुंदर सा मास्क