Last modified on 9 मई 2011, at 12:28

मित्र / नरेश अग्रवाल

मित्र, तुम्हारी इस चाय को, एक संकल्प की तरह पीता हूं
कि हमारी घनिष्ठता बढ़ती जाए।
कुछ चीजें तुम अपनी दिखाते हो तो
मैं तुम्हारे थोड़ा और करीब आ जाता हूं
जैसे तुमने इन चीजों पर मुझे अपना हक दिया।
धीरे-धीरे ये तस्वीरें, ये चिट्ठयां
हमारी मिली-जुली अंगुलियों से
अपना रूप बदलती हैं, क्रम से
अंत में वे रख दी जाती हैं
अपने निर्धारित स्थल पर।
हम मिलते रहते हैं इसी तरह से कई बार
लेकिन हमने, उपहार नहीं दिये कभी आपस में
न ही इसे कभी जरूरी समझा
बस रिक्त होकर आये और भरे हुए होकर लौटे
यही थी हमारी नियति।