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मिलेगा क्या तुझे इंसां / ज्ञानेन्द्र पाठक
Kavita Kosh से
मिलेगा क्या तुझे इंसाँ सराबों में भटकने से
बुझेगी प्यास जीवन की उसी का नाम रटने से
अँधेरा लाख गहरा हो उजाला आ के रहता है
कोई शब रोक सकती है भला सूरज को उगने से
सभी मे कुछ न कुछ कमियाँ तो होंगी आदमी हैं सब
मिलेगा क्या भला सबको कसौटी पर परखने से
वही तो राह रोकेगा जो तेरा हमसफ़र होगा
हवा ही रोक सकती है फ़क़त गुल को महकने से
खुली ज़ुल्फ़ें,हसीं, चेहरा,महकता जिस्म,मदहोशी
कोई क्या रोक पायेगा भला ख़ुद को बहकने से
नहीं जो हो सका अपना किसी भी मोड़ पर 'पाठक'
कहाँ है फ़ायदा उससे कोई उम्मीद रखने से