भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मिस्त्री / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

</poem>

कश्मीर से कन्या कुमारी तक असंख्य
ख़ाली पड़े बँगलों में
शामिल है यह बँगला

अँधेरे के भीतर
सुरक्षित है वैयक्तिकता

बंद कपाटों के बीचों-बीच
भारी भरकम लोकतांत्रिक समाजवाद
लटक रहा है
और अधिकतर हिंदुस्तान
फ़ुटपाथ पर
सो रहा है

बेअसर रहती है
बँगले के भीतर निर्जीव वैयक्तिकता
मौसम
दीवारों से टकराते हैं
छत से फिसलते हैं
अग़ल-बगल से गुज़र जाते हैं

बंगले और फ़ुटपाथ के बीच
मुस्तैद है व्यस्था.