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मींजाई / पीयूष दईया

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चाहता तो पहाड़ी बाज की तरह अपने घोंसले में लौट जाता पर यह हवा होती जो उसके पत्तों की दिशा तय करती। हर शब्द खांटी भट्टीतपा। परिभाषित। खालिस हरसिंगार-सा झर जाता।

वह आईना बिना तोड़े बाहर आता। टिकली-सा घूमता। भूले से भी कहीं नहीं पहुंचता। दूसरों की उड़ाई खिल्लियों को कांख-तले दाबे खाद-पानी की तरह काम में लाता। भूसी से चावल अलग करता। मींजाई। करघे पर सूत भर बुनता। केंचुली उतरा। पीछे हटता चला जाता। लदा-फदा न अंटा पड़ा , सेमल की रुई सा जाल खींच लेता। सिरफिरा फटीचर समझ लिया जाता। फूहड़ फूंक-सा। फकत , फिजूल।

असीसती उजलता। सिक्का उछाल।

जल्लादी वश्यता का सामना करता। पालकी ढोने वाले बाजू पालने में बदल जाते। नमक के लिए अब कोई जीभ लपलपाती दिखाई नहीं देती। जीभवाले आदमकद खीसे निपोरने-से चुनौती देने लगते। चर्बीदार चर्चाओं में मशगूल छीछालेदर करते रहते। चीमड़ कर्कश। मुंह फेर लेते।

तो समझ में आने लगता।

फूलों से लदा पौधा, फलों से झुका पेड़।

दैनिक दरिद्रता के अस्पताल के पहले खाने में। खाट तोड़ते खाली पड़े पड़े। निवालों के लिए तरसता रहता। न कहीं काम करता न पगार पाता। प्रायः पूंछ उठाता, गोबर करता। निंदित दुर्वह को सानन्द गले लगाता। कृतकृत्य। निरानन्द क्लान्ति से भर जाता। सूना नाकारा। विभोर विहंसता।

जीते-जी भंगार।

भूली दिनांकों में छूट गये को बीनते। कितनी बारिशों में भींगते कितने चौराहे। सब में से होकर गुजरता पर किसी से कुछ न कहता। जीवनी के जबड़ों से फिसलते। अपने शब्द खण्ड़हर में बदल देते। पूरी तरह मरने का वास्ता देते। खरपतवार-से उगते। हींसते बिना काटता रहता। अपने पुनरुत्थान के झूठमूठ से बने।

उर्वर। सुभाषित।
सच होने, नित्यप्रति। क्रमशः उच्छिष्ट पर मार्का लगे। सबकुछ मसखरे सा सरल मान लेता। मुंह से उफ तक न करता।
हर दिन अपने क़िस्से ले आता, थोथे।

इसी धरती पर जहां वह छुटिट्यां बिताने आया होता या गुइयां ढूंढ़ने। फूल इतना खिलते कि डाली से झर जाते। बिना गंतव्य के गोता लगाने वाले भला कहां मिलते जो बीजक गुनते।
व्यवह्नतः।
जैसे साया। कभी ऊपर नहीं आता।

जब भी लिखने बैठता, अमावस आ जाती। मुठ्ठी में कुछ हासिल नहीं करना होता पर मारकेश बाज़ नहीं आता। टुकड़े फेंकता रहता देवता, वह देखता रहता। सूखने पर सरोवर। हंस उड़ कर चला जाता।

रोशनी को ओछा करता अंततः। कुप्पी से तेल रीत जाता।

और मादरजात टूटे दांत-सा फिका जाता।