भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मीरा नहीं हो तुम / रणजीत
Kavita Kosh से
मीरा नहीं हो तुम
न मैं ही हूँ तुम्हारा गिरिधर लीलाधाम
तुम्हारे ओठ छूकर भी
ज़माने का ज़हर अमृत नहीं होता
न मेरे चाहने भर से ही बनता है
तुम्हारी ओर बढ़ता साँप, शालिग्राम ।
इसलिये तुम ज़हर का प्याला उठा कर
आज राणा के ही होठों से लगाने के लिए जी कड़ा कर लो
और मैं ?
मैं अभी इस साँप का सिर कुचलता हूँ !