भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्त अलकें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

21
दे नहीं पाए
सुख के दो पल भी
दी दर्द की सौगातें,
यही बचा था
निर्मम दुनिया में
तेरे हिस्से में आया ।
22
नेह था बाँटा
अँजुरी भर-भर
जीवन- घट रीता
प्यास लगी थी
दो घूँट जल माँगा
कुछ भी नहीं पाया ।
23
माथा तुम्हारा
मेघमाला से झाँके
ज्यों चाँद का टुकड़ा,
चाँद में दाग़
बिखरे जहाँ पर
नभ में छोड़ आया ।
24
मुक्त अलकें
बिखरी है खुशबू
चन्दनी हवाओं की,
अधरों पर
थिरकी मधुरिमा
पावन ॠचाओं की ।
25
रंग बिखरे
इन्द्रधनुष बन
नयनों के नभ में
छलक रहा
साँझ-सा अनुराग
पलकों की कोरों पे ।
26
फूटी किरनें
सुरमई साँझ भी
रूपसी बन गई।
लौटेंगे सब
माना नीड़ में पाखी
ये पल न लौटेंगे।
27
मत रो यार
अब तक जो बीता
वापस न आएगा,
पास में तेरे
जितने भी पल हैं
उनसे प्यार करो ।
28
कुरेदो नहीं
तुमने जो दिए थे
घाव हुए गहरे,
कैसे सुनेंगे
हाल मेरे मन का
जो जन्म से बहरे ।
29
एकाकी मन
सरहदों के पार
ढूँढता रहा प्यार,
उठी नज़र
जो घर-आँगन में
उनको वहाँ पाया ।
30
मेरे ही नाम
अपने नयनों का
तुम पानी कर दो,
मैं सींच दूँगा
मन का उपवन
फूल खिल जाएँगे ।