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मुक्त बंधन / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
मन की रिक्तता को, न जाने क्यूँ
एक अजीब से ख़ालीपन से
भरने की कोशिश करता रहता हूँ
अपने दिल के केनवास पे
न जाने क्यूँ
बिना रंगो के
कुछ ना कुछ उकेरता रहता हूँ
पुकारता रहता हूँ
न जाने क्यूँ
बेजुबान-सा
किसी को बुलाने की कोशिश में
देखता रहता हूँ, न जाने क्यूँ
शून्य में
अपनी आँखों को बंद किए
कोई आहट-सी होती है
इन शोर शराबों के जंगल में
न जाने किसे महसूस करता रहता हूँ
कोई तो है
जो मुझमें जागता रहता हैं
जो बाँधे हुए है मुझे, मुक्त करके।