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मुक्त होना चाहता हूँ / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
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मैं विगत के बंधनों से,
मुक्त होना चाहता हूँ।
नेह मैं कितना जताऊँ,
मूर्तिवत पाषाण हिय से?
मन-मलिनता कब घटी है,
क्षीरसागर के अमिय से?
मैं निरंजन स्वप्न फल के,
बीज बोना चाहता हूँ।
मैं विगत के बंधनों से,
मुक्त होना चाहता हूँ।
शून्य मन में वेदना के,
बस गए समवाय कितने।
हैं जुड़े उर के पटल से,
क्षोभ के अध्याय कितने।
आज इन सब को मिटाकर,
खूब रोना चाहता हूँ।
मैं विगत के बंधनों से,
मुक्त होना चाहता हूँ।
राग बनकर डूब जाना,
चाहता हूँ रागिनी में।
चाँद बन नभ से लिपटना,
चाहता हूँ चाँदनी में।
कण तुहिन बन कल्पना के,
दूब धोना चाहता हूँ।
मैं विगत के बंधनों से,
मुक्त होना चाहता हूँ।