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मुक्तक-21 / रंजना वर्मा

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वो सितम खूब ढाते रहे
हम सदा मुस्कुराते रहे।
टूट जातीं उमीदें मगर
ख्वाब भी झिलमिलाते रहे।।

इस धरा पर सभी का अधिकार है
सिर्फ यह ही श्रेष्ठ अटल विचार है।
मानता जो भूमि को निज सम्पदा
व्यक्ति की उस सोच को धिक्कार है।।

चला आ पिया यामिनी कह रही है
नदी प्यार की बीच में बह रही है।
न लब पर है शिकवा न कोई गिला ही
युगों से विरह की जलन सह रही है।।

हो प्यार बाँटता जो मेहमान नहीं मिलता
शैतान हर जगह ही भगवान नहीं मिलता।
पत्थर के देवता सब मंदिर में जा विराजे
है आदमी अनेकों इंसान नहीं मिलता।।

नहीं कहीं भी फूल न पत्ती पेड़ न ताल तलैया
कहीं न दिखते कीट पतंगे दाना दुनका दैया।
कहाँ बनाऊँ आज घोंसला पेड़ न कोई खोडर
दुखी बहुत सूखे तरु बैठी सोच रही गौरैया।।