भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक / रघुवीर अग्रवाल ‘पथिक’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छत्तीसगढ़ के माटी मा, मैं जनम पाय हौं।
अड़बड़ एकर धुर्रा के चंदन लगाय हौं॥
खेले हौं ये भुँइया मा, भँवरा अउ बाँटी।
मोर मेयारूक मइया, छत्तीसगढ़ के माटी॥

छत्तीसगढ़ मा हवै सोन, लोहा अउ हीरा।
हवैं सुर, तुलसी, गुरु घासीदास, कबीरा॥
हे मनखे पन, अउ अइसन धन, तबले कइसन।
चटके हवै गरीबी जस माड़ी के पीरा॥

कहूँ खेत के धान, निचट बदरा हो जाही।
नेता हर चितकबरा अउ लबरा हो जाही॥
का होही भगवान हमर अउ हमर देश के?
खाल्हे ले उप्पर तक ह खदरा हो जाही॥

भला करइया खावै गारी।
गरकट्टा मन खीर सोंहारी॥
हमर लहु ला चुहक चुहक के
लाहो लेवय भ्रष्टाचारी॥

रुपिया हर हरू होगे।
जिनगी हर गरू होगे॥
मनखे अउ मनखे के।
मया घलो करू होगे॥

हेलमेट लगाबो, मूड़ ला बचाबो।
बने बात बोले, सबला समझाबो।
सुन तो संगवारी, संसो हे भारी।
मूड़ी खजुवाही तो, काला खजुवाबो?