भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक / लाखन सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
धूप जैसे गन्ध में, आकर नहाये।
रूप जैसे छन्द में, आकर नहाये।
नाद लय में याद यों डूबी हुई-
पीर के आनन्द में, गाकर नहाये।


दो दिगन्तों का मिलन ही ब्याह है।
दो बसन्तों का मिलन ही ब्याह है।
दो वियोगों का मिलन परिणय मधुर-
दो अनन्तों का मिलन ही ब्याह है।


प्राण तुम फिर, एक दृष्टि निहार दो।
मौन के घट से अमिय की धार दो।
तुम लजाती प्रीति की मुस्कान से ही-
जिन्दगी की सब थकान उतार दो।


एक क्षण दे दो किसी को, मुस्कुरा दो।
इस तरह से आग का पीना सिखा दो।
ज़िंदगी मुस्कान से सूनी नहीं हो
इस तरह हमको ज़रा जीना सिखा दो।