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मुक्ति-बोध / रणजीत
Kavita Kosh से
मुझे ग़म इस बात का नहीं है मेरे दोस्त!
कि बहुत मजबूत हैं कड़ियाँ तुम्हारी
औ' बहुत मजबूर हो तुम
नहीं
ग़म तो यह है कि
युगों से समेटे रहने के कारण
तुम्हारे डैनों की छटपटाहट ख़तम हो रही है,
लंबे अरसे से सीखचों में बंद रहने से
तुम्हारे दिल में
उन्हें तोड़ने की कसमसाहट
कम हो रही है
कि यह ज़ंजीरित वायुमण्डल
तुम्हारी साँसों के साथ-साथ
तुम्हारे लहू में उतरता जा रहा है
कि तुम्हारा मुक्ति-बोध मरता जा रहा है।