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मुक्ति / कर्मानंद आर्य

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इतनी सदियों बाद
जब तुमने कहा
‘तुम अब आजाद हो’
हम एक शब्द भी न बोल पाए
हमने लोहे की दीवारों से जो वादे किये थे
हमने पत्थरों पर जो आंसुओं से लिखा था
हम भूल गए आज
‘मुक्ति’ हमारी सदियों की आकांक्षा थी
हमारी पीढ़ियों ने चाहा था
इस शब्द को ‘झंडे पर लिख दिया जाए’
शहीद चौक पर जो मूरत लगे
उसके सीने पर खुदे यही शब्द
वे चाहते थे ‘गीता’ की जगह ‘मुक्ति’ का पाठ हो सभाओं में
हवा जब चले तो बोले ‘मुक्ति’
नदी जब बहे तो बोले ‘मुक्ति’
‘मुक्ति’ की एक ट्रेन ‘बिहार’ से चलकर पंजाब जाए
और वहां से जब लौटे
तब उसपर गुरदास सिंह ‘पाश’ की पंक्तियाँ उकेरी हों
हम चाहते थे ‘हमारे पूर्वजों का तर्पण हो’
उनके मरने को कहा जाए ‘मुक्ति’
सदियों बाद आज हम आजाद हुए
हमारी जिह्वा को क्या हो गया है
हम एक शब्द भी नहीं बोल पा रहे हैं
क्या आजाद होना चुप होने को कहते हैं?