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मुक्ति के गीत / अरविन्द पासवान
Kavita Kosh से
कुछ दिन हुए
शामिल होने की ललक में
मैं भी सपरिवार शामिल हो गया हूँ
राजधानी की भीड़ में
जहाँ बसते हैं
कवि, कलाकार, रचनाकार
अनेक विद्वान और कॉमरेड
जो
जीवन की मुक्ति के गीत गाते हैं
राजधानी का एक चौराहा
जहाँ से अक्सर गुज़रते हैं लोकशाह
वहीं चौराहे के बीच
पोल से बँधी एक बकरी
न जाने कब से
अपनी मुक्ति के गीत गा रही है