भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुखौटा लेकर / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
दुख ने एक मुखौटा लेकर
जीना चाहा था
लम्बे नाख़ूनों से ये सब
देखा नहीं गया
आदमखोर शेर
बस्ती में
छोड़ गए —
उनको पता नहीं
कितनों को
तोड़ गए
एक जून रोटी ने
पानी पीना चाह था
कुछ अफ़लातूनों से ये भी
देखा नहीं गया ।