Last modified on 21 अगस्त 2014, at 16:06

मुखौटा लेकर / महेश उपाध्याय

दुख ने एक मुखौटा लेकर
             जीना चाहा था
लम्बे नाख़ूनों से ये सब
              देखा नहीं गया

आदमखोर शेर
बस्ती में
छोड़ गए —
उनको पता नहीं
कितनों को
तोड़ गए

एक जून रोटी ने
पानी पीना चाह था
कुछ अफ़लातूनों से ये भी
             देखा नहीं गया ।