भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको तोड़ा है / सोम ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खंडहरी कथाओं ने, कड़वे इतिहासों ने
मुझ को तोड़ा है घुने हुए इतिहासों ने

पूजता रहा मैं मरे हुए आदर्शों को
अपना ज़िंदा अरमान किसी से कहा नहीं
वह मेरी गर्दिश का पहला पहला दिन था
जब में हो चला देवता, मानव रहा नहीं
बाहर की भीड़ ने तो कुचला नही मुझे
गहरे दफ़नाया भीतर के वनवासों ने

वे दिन भी मुझे याद है जब मेरी खातिर
जामुनी अमावस थी, पूनम अंगूरी थी
लेकिन ताज़ा अंकुर के परिचय से पहले
पतझर से भी गहरी पहचान ज़रूरी थी
मेरा सारा मधुवंत हरापन छीन लिया
उफ़ने दलदल के तेज़ाबी एहसासों ने

केवल उस क्षण तक ही जाना स्वीकार मुझे
जब तक मुझ में चिंगारी वाली चाह रहे
पुण्य का कोई नाटक सफल ना हो पाया
मेरे बिल्कुल अपने तो सिर्फ़ गुनाह रहे
मैं हूँ कच्चा भविष्य संजीवन बीजों का
मुझको चीरा है ज़हरभरे सन्यासों ने

जाने कैसा था इंद्रजाल आँधियारे का
मेरी अपनी रोशनी जन्म लेकर रोई
में जितना ज़्यादा सूरज के नीचे आया
उतनी ज़्यादा मेरे तन की छाया खोई
गहराती हुई साँस से तो में बच निकला
मुझको लूटा भोर के ग़लत आभासों ने

इतना ज़्यादा देखा मैने केवल खुद को
अपने चेहरे का रूप सताने लगा मुझे
मैं इतना ज़्यादा दूर स्वयं से चला गया
दर्पण -दर्पण अजनबी बताने लगा मुझे
मैं जो कुछ था ,जैसा था खूब खुलासा था
ढक दिया मुझे मेरे रंगीन लिबासों ने