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मुझको मालूम है ये तुम्हारी हँसी / अमरेन्द्र
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मुझको मालूम है ये तुम्हारी हँसी
मन हिरण के लिए है शिकारी, हँसी।
मन क्यों चंचल है यह द्रोपदी की तरह
दाँव पर न लगा दे, जुआरी हँसी।
मैंने देखी है कितनी हँसी-दर-हँसी
पर न देखी थी ऐसी कुँवारी हँसी।
तन भिंगोया तो मन भी भिंगोती रही
सौन-भादो की रिमझिम फुहारी हँसी।
कैसे फासूँ मैं अपने नयन-जाल में
रेत-अधरों पर तैरे बुआरी हँसी।
दूर जाउँगा जब मैं बहुत दूर देश
याद आएगी अक्सर तुम्हारी हँसी।
लौट आऊँगा फिर-फिर तुम्हारे करीब
फिर चुरा कर मैं चल दूँगा सारी हँसी।