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मुझको मिलते हैं अदीब / शमशेर बहादुर सिंह

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मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत

लेकिन इन्सान के दर्शन हैं मुहाल।


दर्द की एक तड़प--

हल्के-से दर्द की एक तड़प,

सच्ची तड़प,

मैंने अगलों के यहाँ देखी है;--


या तो वह आज है ख़ामोश तबस्सुम में ज़लील

या वो है कफ़-आलूद;

या वो दहशत का पता देती है;

या हिरासाँ है;

या फिर इस दौर के ख़ाको-खूँ में

गुमगश्ता है।


(1953 में रचित)