भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे क्षमा करें / राकेश रंजन
Kavita Kosh से
मैं और सुबह आता
पर देर हो गई
मैं चला गया था
शाम के परिन्दों के साथ
जंगलों, पहाड़ों के पास
रातभर रहा सुनता पत्तों पर ओस का टपकना
पेड़ों के साथ
खड़ा रहा निविड़ अन्धकार में
तारों की डूबती निगाहें
देखती रहीं मुझे निशब्द
प्राणों की काँपती पुकारें और विकल पँख-ध्वनियाँ
जगाए रहीं रातभर
निगलती रहीं मुझको भूखी छायाएँ
लौटते समय
मेरे रस्ते में फैला था
बकरी की आँखों-सा पीला सन्नाटा
जले हुए डैने छितराए
सारस-सा गिरा था सवेरा
सवेरे से पहले
फेंक गया था कोई जन्मजात बच्चा
शिशिर के जलाशय में फूलकर
सफ़ेद हुआ था उसका फूल-सा शरीर
उसकी ही बन्द मुट्ठियों में मैं फँसा रह गया था कुछ देर, मुझे क्षमा करें
मैं और सुबह आता
पर देर हो गई।