भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए / शैलेन्द्र
Kavita Kosh से
मुझे तुम से कुछ भी न चाहिए
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो
मेरा दिल अगर कोई दिल न था
उसे मेरे सामने तोड़ दो
मुझे तुम से कुछ भी न चाहिए ...
मैं ये भूल जाऊँगा ज़िन्दगी
कभी मुस्कुराई थी प्यार में
मैं ये भूल जाऊँगा मेरा दिल
कभी खिल उठा था बहार में
जिन्हें इस जहाँ ने भुला दिया
मेरा नाम उन में ही जोड़ दो
मुझे तुम से कुछ भी न चाहिए ...
तुम्हें अपना कहने की चाह में
कभी हो सके न किसी के हम
यही दर्द मेरे जिगर में है
मुझे मार डालेगा बस ये ग़म
मैं वो गुल हूँ जो न खिला कभी
मुझे क्यों न शाख़ से तोड़ दो
मुझे तुम से कुछ भी न चाहिए ...