भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे नहीं नाथ कुछ है चिंता / बिन्दु जी
Kavita Kosh से
मुझे नहीं नाथ कुछ है चिंता,
कि जब है मन्दिर ये मन तुम्हारा।
तुम्हीं से पाया था कर रहा हूँ,
तुम्हीं को अर्पण भवन तुम्हारा।
बनाना चाहो इसे बना लो,
हो उजाड़ना तो उजाड़ डालो।
प्रभो हो तुम ही बागवाँ इसके,
है ज़िस्म सारा चमन तुम्हारा।
कराल कलिकाल के ठगों ने,
इरादा कुछ और ही किया था।
सम्भालना लुटा न जाए भगवन-
अमूल्य यह प्रेम धन तुम्हारा।
विचार आँखों का है कि घटने-
न पाए आँसू की ‘बिन्दु’ धारा।
भरे कलश द्वार पर मिले अब,
हो हृदय में ही आगमन तुम्हारा।