भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे नहीं मालूम / केशव
Kavita Kosh से
मुझे नहीं मालूम
तुम यहां होते
तो यह शहर
किस करवट बैठता
जिस करवट यह बैठा है
फिलहाल वहां हुआ करता था घना जंगल कभी
अब यहां लोग हैं
लोग ही लोग
पेड़ों से कई गुना अधिक
छाया के लिए हाहाकार मचाते
हरियाली के लिए नारे लगाते
आत्मदाह की धमकी देते
अखबारों के लिए
फोटो खिंचवाते
लेकिन उसी जगह
तामीर होती कालोनी में
एक फ्लैट पाने के लिए
सिफारिशी चिट्ठी की तलाश में
दर-बदर की ठोकरें खाते।